जून का महीना, तपती धूप, ढ़लता सूरज
बासी रोटी के साथ अचार और गुड़धानी,
जो खाई थी कभी तेरे निवाले के साथ,
बैठकर जिस वृक्ष के नीचे-
तेरे साथ गुजरी वो हर शाम सुहानी थी,
यूं तो अब भी बैठ जाता हूं,किसी पेड़ की छांव में-
मगर हम बैठे थे जहां उस पेड़ की छांव सुहानी थी,
अटक गई थी उस पेड़ की कंटीली शाख में
वो मनमोहक नायाब तेरी चुनरी आसमानी थी
यूं तो अब भी रात गुजरती है तारों को निहारकर
पर जो तेरी अंक में गुजरी वो रात रूहानी थी
काफी सफ़र किया, बिना हमसफ़र के-
लेकिन उस सफ़र की हर बात बेमानी थी
बहुत मिले अनायास इस रंगीन दुनिया में,
छोड़ दिए वो सब जिनकी सोच अफ़्सानी थी
तो कैसी लगी दोस्तों आपको मेरी रचना
ये हक़ीकत नहीं एक कल्पित प्रेम-कहानी थी।
✍️- Vikas Meena